Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-1


प्रवेश : वैशाली की नगरवधू

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मुजफ्फरपुर से पश्चिम की ओर जो पक्की सड़क जाती है—उस पर मुजफ्फरपुर से लगभग अठारह मील दूर 'वैसौढ़' नामक एक बिलकुल छोटा-सा गांव है। उसमें अब तीस-चालीस घर भूमिहार ब्राह्मणों के-और कुछ गिनती के घर क्षत्रियों के बच रहे हैं। गांव के चारों ओर कोसों तक खण्डहर, टीले और पुरानी टूटी-फूटी मूर्तियां ढेर-की-ढेर मिलती हैं, जो इस बात की याद दिलाती हैं कि कभी यहां कोई बड़ा भारी समृद्ध नगर बसा रहा होगा।

वास्तव में वहां, अब से कोई ढाई हज़ार वर्ष पूर्व एक विशाल नगर बसा था। आजकल जिसे गण्डक कहते हैं, उन दिनों उसका नाम 'सिही' था। आज यह नदी यद्यपि इस गांव से कई कोस उत्तर की ओर हटकर बह रही है; किन्तु उन दिनों यह दक्षिण की ओर इस वैभवशालिनी नगरी के चरणों को चूमती हुई दिधिवारा के निकट गंगा में मिल गई थी। इस विशाल नगरी का नाम वैशाली था। यह नगरी अति समृद्ध थी। उसमें 7777 प्रासाद, 7777 कूटागार, 7777 आराम और 7777 पुष्करिणियां थीं। धन-जन से परिपूर्ण यह नगरी तब अपनी शोभा की समता नहीं रखती थी।

यह लिच्छवियों के वज्जी संघ की राजधानी थी। विदेह राज्य टूटकर यह वज्जी संघ बना था। इस संघ में विदेह, लिच्छवि, क्षात्रिक, वज्जी, उग्र, भोज, इक्ष्वाकु और कौरव ये आठ कुल सम्मिलित थे, जो अष्टकुल कहलाते थे। इनमें प्रथम चार प्रधान थे। विदेहों की राजधानी मिथिला, लिच्छवियों की वैशाली, क्षात्रिकों की कुण्डपुर और वज्जियों की कोल्लाग थी। वैशाली पूरे संघ की राजधानी थी। अष्टकुल के संयुक्त लिच्छवियों का यह संघव्रात्य संकरों का संघ था और इनका यह गणतन्त्र पूर्वी भारत में तब एकमात्र आदर्श और सामर्थ्यवान् संघ था, जो प्रतापी मगध साम्राज्य की उस समय की सबसे बड़ी राजनीतिक और सामरिक बाधा थी।

नगरी के चारों ओर काठ का तिहरा कोट था, जिसमें स्थान-स्थान पर गोपुर और प्रवेश-द्वार बने हुए थे। गोपुर बहुत ऊंचे थे और उन पर खड़े होकर मीलों तक देखा जा सकता था। प्रहरीगण हाथों में पीतल के तूर्य ले इन्हीं पर खड़े पहरा दिया करते थे। आवश्यकता होते ही वे उन्हें बजाकर नगर को सावधान कर देते और प्रतिहार तुरन्त नगर- रक्षकों को संकेत कर देते। इसके बाद आनन-फानन सैनिक हलचल नगर के प्रकोष्ठों में दीखने लगती थी। सहस्रों भीमकाय योद्धा लोह-वर्म पहने, शस्त्र-सज्जित, धनुष-बाण लिए, खड्ग चमकाते, चंचल घोड़ों को दौड़ाते प्राचीर के बाहरी भागों में आ जुटते थे।

वज्जी संघ का शासन एक राज-परिषद् करती थी, जिसका चुनाव हर सातवें वर्ष उसी अष्टकुल में से होता था। निर्वाचित सदस्य परिषद् में एकत्र होकर वज्जी-चैत्यों, वज्जी संस्थाओं और राज्य-व्यवस्था का पालन करते थे। शिल्पियों और सेट्ठियों के नगर में पृथक् संघ थे। शिल्पियों के संघ श्रेणी कहाते थे, और प्रत्येक श्रेणी का संचालन उसका जेट्ठक करता था। जल, थल और अट्टवी के नियामकों की श्रेणियां पृथक् थीं। नगर में श्रेणियों के कार्यालय और निवास पृथक्-पृथक् थे। बाहरी वस्तुओं का क्रय-विक्रय भी पृथक्-पृथक् हट्टियों में हुआ करता था। परन्तु श्रेणियों का माल अन्तरायण में बिकता था। सेट्ठियों के संघ निगम कहाते थे। सब निगमों का प्रधान नगरसेट्ठि कहाता था और उसकी पद-मर्यादा राजनीतिक और औद्योगिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती थी।

वत्स, कोसल, काशी और मगध साम्राज्य से घिरा रहने तथा श्रावस्ती से राजगृह के मार्ग पर अवस्थित रहने के कारण यह स्वतन्त्र नागरिकों का नगर उन दिनों व्यापारिक और राजनीतिक संघर्षों का केन्द्र बना हुआ था। देश-देश के व्यापारी, जौहरी, शिल्पकार और यात्री लोगों से यह नगर सदा परिपूर्ण रहता था। 'श्रेष्ठिचत्वर' में, जो यहां का प्रधान बाज़ार था, जौहरियों की बड़ी-बड़ी कोठियां थीं, जिनकी व्यापारिक शाखाएं समस्त उत्तराखण्ड से दक्षिणापथ तक फैली हुई थीं। सुदूर पतित्थान से माहिष्मती, उज्जैन, गोनर्द, विदिशा, कौशाम्बी और साकेत होकर पहाड़ की तराई के रास्ते सेतव्य, कपिलवस्तु, कुशीनारा, पावा, हस्तिग्राम और भण्डग्राम के मार्ग से बड़े-बड़े सार्थवाह वैशाली से व्यापार स्थापित किए हुए थे। पूर्व से पश्चिम का रास्ता नदियों द्वारा था। गंगा में सहजाति और यमुना में कौशाम्बी-पर्यन्त नावें चलती थीं। वैशाली से मिथिला के रास्ते गान्धार को, राजगृह के रास्ते सौवीर को, तथा भरुकच्छ के रास्ते बर्मा को और पतित्थान के रास्ते बेबिलोन तथा चीन तक भी भारी-भारी सार्थवाह जल और थल पर चलते रहते थे। ताम्रपर्णी, स्वर्णद्वीप, यवद्वीप आदि सुदूर-पूर्व के द्वीपों का यातायात चम्पा होकर था।

श्रेष्ठिचत्वर में बड़े-बड़े दूकानदार स्वच्छ परिधान धारण किए, पान की गिलौरियां कल्लों में दबाए, हंस-हंसकर ग्राहकों से लेन-देन करते थे। जौहरी पन्ना, लाल, मूंगा, मोती, पुखराज, हीरा और अन्य रत्नों की परीक्षा तथा लेन-देन में व्यस्त रहते थे। निपुण कारीगर अनगढ़ रत्नों को शान पर चढ़ाते, स्वर्णाभरणों को रंगीन रत्नों से जड़ते और रेशम की डोरियों में मोती गूंथते थे। गन्धी लोग केसर के थैले हिलाते, चन्दन के तेल में गन्ध मिलाकर इत्र बनाते थे, जिनका नागरिक खुला उपयोग करते थे। रेशम और बहुमूल्य महीन मलमल के व्यापारियों की दुकान पर बेबिलोन और फारस के व्यापारी लम्बे-लम्बे लबादे पहने भीड़ की भीड़ पड़े रहते थे। नगर की गलियां संकरी और तंग थीं, और उनमें गगनचुम्बी अट्टालिकाएं खड़ी थीं, जिनके अंधेरे और विशाल तहखानों में धनकुबेरों की अतुल सम्पदा और स्वर्ण-रत्न भरे पड़े रहते थे।

संध्या के समय सुन्दर वाहनों, रथों, घोड़ों, हाथियों और पालकियों पर नागरिक नगर के बाहर सैर करने राजपथ पर आ निकलते थे। इधर-उधर हाथी झूमते बढ़ा करते थे और उनके अधिपति रत्नाभरणों से सज्जित अपने दासों तथा शरीर-रक्षकों से घिरे चला करते थे।


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1 Comments

fiza Tanvi

27-Dec-2021 03:32 AM

بحرین

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